इस माह का आकर्षण

इस माह का आकर्षण

वर्तमान माह


तोते के शीर्ष सदृश्‍य मूठ

मुगल, 18वीं सदी ई. यशब, अल्‍प-मूल्‍य पत्‍थर व स्‍वर्ण निर्मित आकार : (ऊं) 12.8 सेमी. अवाप्ति सं. 61.1278/ (a)

दरबार में सम्राटों और कुलीन वर्ग के अस्‍त्र साधारणत: सुसज्‍जात्‍मक विवरण युक्‍त पाए गए है। इन अस्‍त्रों का प्रयोग सामान्‍यत: युद्ध में नहीं किया जाता था। दरबार में शामिल होने के दौरान, राजा और उच्‍च पदों पर आसीन दरबारीगण ऐसे अलंकृत अस्‍त्रों को शान-ओ-शौकत के रूप में धारण करते थे। विशेषकर प्रतापी मुगल राजाओं के शासनकाल के दौरान मुख्‍य आयोजन पर राजाओं के प्रति अपनी सेवा के पहचान के रूप में रत्‍नजटित और अलंकारों से अलंकृत तलवार व खंजर तथा विशिष्‍ट लोगों के ऐसे अस्‍त्रों की प्रस्‍तुति विस्‍मयकारी माना जाता था। यह परंपरा सदियों तक कायम रही जिससे पारंपरिक भारतीय दस्‍तकारों को सौंदर्यपरक ढ़ंग से मनमोहक डिजाइन तथा अधिक आकर्षक मूठ वाले उत्‍कीर्णन और जड़ाऊ काम युक्‍त सुंदर तलवार एवं खंजर निर्मित करने हेतु प्रोत्‍साहन मिला। ये प्रतिदर्श मध्‍य युगीन भारत के हमारे दस्‍तकारों के कौशल, निपुणता और व्‍यवसायिक कुशाग्रता का परिचायक हैं। 16वीं और 19वीं सदी के मध्‍य भारत में विरले ही ऐसी कोई लघुचित्र होगी जिसमें दरबार के दृश्‍य में दरबारियों को शमशीर, खंजर और अन्‍य विविध अस्‍त्रों से सु‍सज्जित न प्रदर्शित किया गया हो। इन अस्‍त्रों को अन्‍तर्ग्रथित पर्णिल मरगोल युक्‍त ज्‍यामितीय और बेलबूटेदार डिजाइन से अलंकृत किया गया है। इन पर्णिल डिजाइनों में कुमुदिनी, कमल और गुलाब की आकृतियों का भी अंकन है। तलवारों और खंजरों के मूठ रजत, ताम्र, स्‍फटिक, यशब, हाथीदांत, सींग और तराशे हुए स्‍टील जैसे सभी प्रकार के सामग्रियों से निर्मित किए जाते थे। इसे बड़े ही समृद्धता से अलंकृत किया जाता था तथा इसे तोता, अश्‍व, सिंह, गज, अज, ऊंट और अन्‍य पशुओं के शीर्ष का आकार दिया जाता था । यहां प्रदर्शित हल्‍के हरे रंग के यशब निर्मित मूठ को सुंदरता से चोंच और नेत्र युक्‍त तोते के शीर्ष के रूप में उत्‍कीर्णित किया गया है। यह लाल, श्‍वेत, और हरे रंग के अल्‍प-मूल्‍य के पत्‍थरों से जटित है। इनमें से कुछ विद्यमान नहीं है। तोता का पंख स्‍वर्ण तारों से जटित है। पिस्‍टल मूठ के नाम से ज्ञात उत्‍कीर्णित आकार का उद्भव दक्‍कन में हुआ तथा यह सर्वप्रथम शाहजहां के शासनकाल में दृष्टिगोचर हुआ। औरंगजेब द्वारा इसे प्रचलन में लाने के पश्‍चात, परवर्ती 17वीं और 18वीं सदी के दौरान पिस्‍टल मूठ मुगल दरबार में बहुधा प्रयोग किया जाने लगा। इनमें से कतिपय आद्य रूप से मूल तोते के डिजाइन की पुनरावृति है।


चक्राकार प्रस्तर

मौर्य-शुंग
तीसरी-दूसरी शती ईसवी पूर्व
मथुरा, उत्तर प्रदेश
प्रस्तर, व्यास : 10 से.मी.
पंजीयन संख्या : 2471

इस चक्राकार प्रस्तर पर सजावटी चिह्नों का अंकन किया गया है, जिसे कलाकार ने बहुत खूबसूरती से केन्द्र बिन्दु से निकालकर चारों ओर फैलती हुई पत्तियों को वृत्ताकार कृति के रूप में प्रदर्शित किया है तथा इसके सिरे अर्द्ध-वलयाकार हैं। इस प्रकार के चिह्न भारत में प्राचीन सिक्कों पर भी देखने को मिलते हैं जिन्हें आहत मुद्रा कहा जाता है।

तक्षशिला से पाटलिपुत्र तक के क्षेत्र से इस प्रकार की प्रस्तर निर्मित अंगूठियां (प्रस्तर के गोल टुकड़े जिसके केन्द्र में एक बड़ा छिद्र होता है ) एवं चक्राकार प्रस्तर प्रायः प्राप्त होते है। ये आकार में छोटे हैं किन्तु वास्तविक सुन्दरता के उदाहरण प्रस्तुत करते है। ये प्रस्तर-निम्न-उद्भूत कला में कारीगरों की उत्कृष्ट कारीगरी को भी प्रदर्शित करते है। बड़ी मात्रा में इन कलाकृतियों पर अनेक प्रतीकात्मक चिह्न देखने को मिलते हैं, जिन पर पुष्प, पशु एवं वस्त्रहीन मातृदेवियों को अंकित किया गया है। इन कलाकृतियों के प्रयोग के संबंध में विवाद रहा है। किन्तु, ऐसा प्रतीत होता है कि धार्मिक अनुष्ठान में प्रयोग हेतु इनको बनाया जाता रहा होगा।


टोपी

रेशम, ज़री, चमड़ा
लखनऊ, उत्‍तर प्रदेश, 19वीं सदी
माप : परिधि 57; ऊंचाई 13 से.मी.
अवाप्ति संख्‍या : 63.401

टोपी, सिली हुई, शिरोवस्‍त्र है जिसका प्रचलन 19वीं सदी के मध्‍य में दक्षिण एशियाई देशों में काफी लोकप्रिय हुआ, यद्प‍ि इसका इतिहास प्राचीन है। लंबे कपड़े को मोड़कर और लपेटकर प्राचीन काल में लोग अपने सिर को ढ़कते थे जिसे पगड़ी कहा जाता था। दक्षिण एशिया के कई समुदायों में पुरुष वर्ग धार्मिक, आनुष्‍ठानिक, सौंदर्यपरक अथवा दैनिक जीवन में इस प्रकार की पगड़ी का प्रयोग करते रहे हैं। प्राचीन प्रतिमाओं में पगड़ी बांधने के तरीके एवं साहित्‍य में पगड़ी के लिए उपयुक्‍त होने वाले विभिन्‍न प्रकार के कपड़ें का प्रसंग मिलता है।

यह दोपल्‍ली टोपी बनी है जो तहदार टुकड़े, जिसे ऊपर की तरफ से गोलाकार टुकड़े से जोड़ा गया है। पुष्‍पीय पैटर्नों को चांदी के तारों से कढ़ाई द्वारा इसे सजाया गया है। कढ़ाई के लिए 'चेन टांका' एवं 'जालीदार काम' का प्रयोग किया गया है। महीन सुन्‍दर फूलदार पैटर्नों के काम को देखकर लगता है कि इसका प्रयोग 19वीं सदी में उत्‍तरी भारत के किसी प्रांतीय दरबार, सम्‍भवत: अवध, में रहा होगा। प्राय: लोगों के समुदाय, जाति धर्म को भी पहचानने में ये टोपियां सहायक होती है।


बयाना निधि का ताम्‍बे का कलश

भरतपुर, राजस्‍थान
4थी−5वीं शती ई.
ताम्र
23.5 x 17.5 से. मी.
51.51

यह ताम्र पात्र बयाना निधि के ताम्‍बे के कलश के नाम से प्रचलित है। बयाना निधि के इस ताम्‍बे के कलश में गुप्‍त काल के स्‍वर्ण सिक्‍के निहित थे। भारतीय ऐतिहासिक सिक्‍कों का यह कलश संयोगवश 1946 में भरतपुर राज्‍य में बयाना के हुलनपुर नामक ग्राम के चरवाहों के हाथ लगा था। इस ताम्र कलश और उसमें निहित सिक्‍कों के महत्त्‍व को समझकर भरतपुर के महाराजा ने इसे तत्‍कालीन राष्‍ट्रपति डा. राजेन्‍द्र प्रसाद के माध्‍यम से राष्‍ट्रीय संग्रहालय को 1951 मे भेंट किया था। यह महत्‍वपूर्ण खोज देश के गौरवपूर्ण इतिहास के हित में प्रत्‍येक नागरिक की सजग भागेदारी, कर्तव्‍य परायणता पुरावशेषों और देश के इतिहास की रक्षा के प्रति निष्‍ठा का एक आदर्श उदाहरण है। बयाना निधि से प्राप्‍त इन मुद्राओं ने भारत के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्‍कृतिक पहलुओं को उजागर कर भारत की महिमा में एक नया अध्‍याय जोड़ दिया है।

बयाना निधि के इस कलश में से कुछ राजवंशों के साथ-साथ प्रमुखत: गुप्‍त काल में सिक्‍कों के सर्वश्रेष्‍ठ उदाहरण सामने आये जिनके अध्‍ययन द्वारा कालक्रम, वंशावली, लाक्षणिक निर्धा‍रीकरण आदि प्रश्‍नों का समाधान सम्‍भव हो पाया है। गुप्‍तवंश के सिक्‍कों की विभिन्‍नता को कई प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है। सिंहासनारूढ चन्‍द्रगुप्‍त द्वितीय, सिंहनिहन्‍ता, गजारूढ, वीणावादक आदि इनके कुछ प्रकार हैं। ताम्र कलश के साथ लगी स्‍वर्ण सिक्‍कों की प्रतिछवि गुप्‍तवंश के सिक्‍कों में अलंकरण, संरचना, अभि‍लेख, प्रतीक एवं चिन्‍ह के साथ-साथ सिक्‍कों के अ‍द्वितीय सौन्‍दर्य का भी परिचय देती है। इनसे गुप्‍त काल के सिक्‍कों की तकनीक एवं प्रतीकात्‍मकता स्‍पष्‍ट होती है।

ताम्र कलश की इस महत्त्‍वपूर्ण खोज के लिए हुलनपूर के चरवाहों और भरतपुर के महाराजा दोनों का ही योगदान तो स्‍मरणीय है ही साथ ही डा. ए. एस. आल्‍तेकर और डा. बी. सी. एच. छाबडा के इस कलश से प्राप्‍त सिक्‍कों को सूची‍बद्ध कर गहन अध्‍ययन, और अनुसंधान कार्य द्वारा ही गुप्‍त राजवंश के इतिहास का विस्‍तृतीकरण हो पाया है।


मोहरा (धार्मिक पट्टिका)

हिमाचल प्रदेश
20 वी शती
मिश्रित धातु
लम्बाई 22.5 से.मी., चौड़ाई 13.5 से.मी.
अवाप्ति संख्या 94.102

मोहरा धार्मिक पट्टिका होती है और ग्रामीण श्रद्धालुओं मे धार्मिक विश्वास को बढ़ाने में इसका महत्त्वपूर्ण योगदान है। मन्दिर से विशाल एवं भारी मूर्तियों को लेजाना आसान नहीं है । इसलिए मुख्य धार्मिक समारोहों पर इन पट्टिकाओं को सजे-धजे रथों पर आदर के साथ भक्तों द्वारा जुलूस मे ले जाया जाता है ।

पूर्वकाल में इन प्रतिमाओं को अष्ठधातु में ढाला जाता था यद्यपि पीतल और तांबे का भी सामायन्तः प्रयोग किया जाता था । प्रायः इन्हें परिवार एवं व्यक्तियों द्वारा मृत्युस्मरणोत्सव आदि पर स्थानीय मन्दिरों में भेंट किया जाता है ।

मोहरों में प्रायः शिव एवं देवी की विभिन्न मुद्राओं में आकृतियां अंकित होती हैं । इस धार्मिक पट्टिका पर शिव एवं उनकी पत्नी पार्वती की संमामेलित प्रतिमा "अर्द्धनारीश्वर" का अंकन किया गया हैं ।


बुर्राक़

कोंडापल्‍ली, आंध्रप्रदेश, परवर्ती 19वीं शती
काष्‍ठ, उत्‍कीर्णित, चि़त्रित
मापः 16 x 13.7 x 6 से.मी.
अवाप्ति सं. 58.25/20

साहित्यिक संदर्भ में बुर्राक़ का अर्थ हैः- ‘बिजली’। यह एक लौकिक पशु है। बिजली की गति से उड़ने के कारण इसका यह तथाकथित नाम पड़ा। इस्‍लामिक स्रोतों के अनुसार यह लम्‍बा, सफेद तथा सुन्‍दर मुख वाला पशु है। इसका आकार घोड़े की तरह होता है, इसके पंख होते हैं तथा इसका एक पैर यदि यहां है तो दूसरा पैर उस जगह होता है जहां तक हमारी नज़र जाती है। मुसलमानों का मानना है कि मैराज के दौरान बुर्राक़ ने पैग़म्‍बर मोहम्‍मद साहब को मक्‍का से येरूशलम स्थित अल-अक्‍़सा मस्जिद तथा सातों स्‍वर्ग की यात्रा करायी थी तथा उन्‍हें वहां से वापस मक्‍का पहुंचाया था।

पूर्वी और पारसी कला में बुर्राक़ को लगभग हमेशा मानवीय मुख के साथ चित्रित किया जाता है। 15वीं शती से इसका चित्रण भारतीय और पारसी इस्‍लामिक कला में किया जाने लगा। हालांकि पूर्व इस्‍लामिक स्रोतों में कहीं भी इसके मानवीय स्‍वरूपों का वर्णन नहीं किया गया है। प्रायः दक्‍कन के कलाकार इस तरह के विषय को न केवल काग़ज़ पर अपितु काष्‍ठ, धातु तथा वस्‍त्र जैसे अन्‍य माध्‍यमों पर भी चित्रित करते थे।

इस चित्रित बुर्राक़ का सिर महिला स्‍वरूप है, धड़ अश्‍व स्‍वरूप है, पैर व पंख पक्षी स्‍वरूप हैं तथा पूंछ ऊंट शीर्ष युक्‍त है। इस तरह के सुसज्‍जात्‍मक काष्‍ठ खिलौने आंध्र प्रदेश के कोंडापल्‍ली में निर्मित किए जाते थे। कोंडापल्‍ली और निर्मल, खिलौने व अन्‍य काष्‍ठ निर्मित कलाकृतियों के उत्‍पादन के प्रसिद्ध केन्‍द्र थे। ये हल्‍के काष्‍ठ (पुंकी) से निर्मित होते थे तथा इस पर जीवंत रंगों से चित्रण किया जाता था। इस तरह के खिलौने परंपरा के रूप में पर्व-त्‍यौहारों में सजाने के लिए बनाए जाते थे।


बोधिसत्‍व मैत्रेय

पाल काल, 10वीं शताब्‍दी
नालंदा, बिहार
कांसा, 20.7x11 x 9.5 से.मी.
अवाप्ति सं. 47.39

बौद्ध परंपरा में मैत्रेय को भावी बुद्ध के नाम से जाना जाता है। ये मूल ऊर्जा, जीवन शक्ति और सौहार्द को विकीर्णित करते हैं। मैत्रेय को तुषित स्‍वर्ग में निवास करने वाले बोधिसत्‍व भी कहा जाता है जो अपने अगले जन्‍म की प्रतीक्षा में हैं। ये स्‍वतंत्र देवता भी हैं जिनकी उपासना हीनयान और महायान, दोनों ही मतावलंबियों द्वारा की जाती है।

यहां बोधिसत्‍व मैत्रेय दोहरे कमल की पीठिका पर ललितासन में बैठे हैं। इस पीठिका का ऊपरी भाग मोतियों वाले किनारे से सज्जित है और निचला भाग साधारण है। प्रतिमा का दाहिना पैर पीठिका से निकलते हुए छोटे कमल पुष्‍प पर टिका हुआ है। बोधिसत्‍व मैत्रेय के हाथ में नागकेशर पुष्‍प है और दाहिना हाथ वरद मुद्रा में है। इनके चेहरे पर ह‍लकी-सी मुस्‍कान है। बोधिसत्‍व मैत्रेय की सौम्‍य मुखाकृति है। इन्‍ह‍ोंने धोती धारण की हुई है जिसे कटिसूत्र से बांधा गया है। प्रतिमा ने अनेक प्रकार के आभूषण जैसे मोतियों से युक्‍त कंठहार, कंगन और बाजूबंद धारण किए हुए हैं। इनकी लंबी केशराशि कंधों तक लटक रही हैं। जटामुकुट के सामने छोटा-सा स्‍तूप उत्‍कीर्ण है। मोतियों से युक्‍त किनारे वाले प्रभामंडल पर नुकीले छोरों वाला एक छत्र भी है। ये प्रकाश की किरणों का प्रतिनिधित्‍व करते हैं।


टोंगाली (कमरबंद)

असम
20वीं शताब्‍दी का मध्‍य काल
सूती वस्‍त्र ; बुना हुआ
लं. 110 ; चौ. 25.5 से.मी.
अवाप्ति सं. 59.216/4

हथकरघे पर बुने गए सूती वस्‍त्र से निर्मित इस कमरबंद को स्‍थानीय रूप से टोंगाली कहा जाता है। इस टोंगाली के मुख्‍य भाग पर ज्‍यादा सजावट नहीं की गई है लेकिन किनारे तक आते-आते इसे काले और लाल रंग की सुंदर बूटियों से सजाया गया है। इसका किनारा लाल रंग से बुना गया है। इसके छोर पीले रंग की पृष्‍ठभूमि में लाल रंग के ज्‍यामितीय डिजाइनों से युक्‍त हैं। दोनों किनारों के छोर पर ‘दोही-बोटा’ हैं।

टोंगाली पुरुषों द्वारा पहनी जाती है। पहले के समय में असम के योद्धा कमर में टोंगाली कसकर युद्ध के लिए निकलते थे। इस टोंगाली का एक साधारण रूप भी है जिसे खेतों में काम, नृत्‍य, आदि करते समय पहना जाता है। आज टोंगाली बांधने या कमर कसने को किसी काम के लिए तैयार होने के अर्थ में कहावत के तौर पर इस्‍तेमाल किया जाता है।


बुद्ध

परवर्ती पांचवीं शताब्‍दी, गुप्‍त-वाकाटक काल
फोफनार, मध्‍य प्रदेश
कांसा, आकार : 45.5x17x13.8 से.मी.
अवाप्ति सं. एल. 658
राष्‍ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्‍ली

बुद्ध की यह कांस्‍य प्रतिमा 1964 में फोफनार गांव (मध्‍य प्रदेश में बुरहानपुर के समीप) से प्राप्‍त सात सुन्‍दर कांस्‍य प्रतिमाओं में से एक है। बुद्ध की यह प्रतिमा कमल पुष्‍प (जो अब विद्यमान नहीं है) पर खड़ी हुई है। इसकी आयताकार पीठिका पर फूलों के पैटर्न हैं। बुद्ध का दाहिना हाथ अभय मुद्रा में है और बायें हाथ से उन्‍होंने एकांशिक संघाटी का किनारा पकड़ा हुआ है। इस प्रतिमा के नैन-नक्‍श विशिष्‍टत: गुप्‍तकाल के हैं – अंडाकार मुखाकृति, चांदी से खचित अर्धनिमीलित चक्षु, काले रंग से रंगी गई नेत्रों की पुतलियां, दीर्घीकृत कान, घुंघराले बाल और लहराती हुई संघाटी।

इस प्रतिमा की पीठिका पर तीन पंक्तियों का लेख भी है जिसका अनुवाद वेंकटरमैया (1964) ने इस प्रकार किया है ‘यह शाक्‍य भिक्षुकाचार्य भदंत बुद्धदास द्वारा दिया गया उपहार है। इस उपहार का श्रेय संभी संवेदनशील जनों तक पहुंचे।‘


बोधिसत्‍व शीर्ष

तीसरी-चौथी शताब्‍दी
गंधार
गच, आकार : 24.5x16x15 से.मी.
अवाप्ति सं. 49.20/25
राष्‍ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्‍ली

यह ध्‍यानमग्‍न बोधिसत्‍व शीर्ष गंधार शैली की गच प्रतिमा का उत्‍कृष्‍ट उदाहरण है। गंधार-स्‍वात-कपिश क्षेत्र उत्‍तरी भारत में हिंदुकुश पर्वत और सिंधु नदी के बीच पड़ता है। यह क्षेत्र शिस्‍ट प्रस्‍तर के अलावा गच निर्मित प्रतिमाओं के लिए भी प्रसिद्ध है। कलाकृतियों के निर्माण में गच का प्रचुर मात्रा में उपयोग किया गया। गच की इन कलाकृतियों को बहुधा चमकीले लाल और काले रंग से सजाया जाता था।

इस बोधिसत्‍व प्रतिमा के तीखे नैन-नक्‍श, अर्धनिमीलित नेत्र, चापाकार भवें, लंबी नुकीली नाक, स्‍थूल अधरोष्‍ठ और गोलाकार ठोड़ी है। बोधिसत्‍व के केश बड़े ही कलात्‍मक ढंग से संवारे गए हैं – पत्‍ते के आकार की लटें जो पूरे ललाट पर फैली हैं और पट्टिका से बंधी हुई हैं। इसका उष्‍णीष मत्‍स्‍य शल्‍क प्रतीक से सज्जित है।

इस बोधिसत्‍व शीर्ष में यूनानी-रोमन कला तत्‍वों का सम्मिश्रण देखने को मिलता है। इसमें बड़े ही सजीव और प्रभावपूर्ण ढंग से मानवाभिव्‍यक्ति का चित्रण है।


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